सोनभद्र (समर सैम) भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दावा है “जनता ही सर्वोपरि है।” लेकिन जब जनता की जान बचाने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था ही दम तोड़ने लगे, तब यह दावा खोखला लगने लगता है। उत्तर प्रदेश का अंतिम जिला सोनभद्र, जो एक ओर आदिवासी संस्कृति का केंद्र है और दूसरी ओर चार राज्यों से जुड़ा हुआ प्रवेश द्वार, आज इंसानियत को झकझोर देने वाली स्वास्थ्य त्रासदी का गवाह है। यहां की हकीकत इतनी कड़वी है कि धरती पर बसे सबसे गरीब और हाशिए पर खड़े लोग अस्पतालों के बाहर अपनी सांसें गिनते रहते हैं। जिला अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी, मेडिकल कॉलेज में ICU सुविधा का न होना, और निजी अस्पतालों में मनमाना शोषण — यह सब मिलकर सोनभद्र को “बीमार ज़िला” बना चुके हैं।
धरना या इंसानियत की चीख?
आज कांग्रेस नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने CMO कार्यालय पर धरना दिया। यह धरना केवल एक राजनीतिक प्रदर्शन नहीं था, बल्कि उन माताओं, बच्चों और बूढ़ों की चीख थी जिनकी आवाज़ अक्सर अस्पताल के गेट से आगे नहीं जा पाती। प्रदर्शनकारियों के हाथों में लिखे सवाल पत्थर की तरह चुभते हैं। “स्वास्थ्य मंत्री जी, सोनभद्र की स्वास्थ्य समस्याओं पर मौन क्यों?”
“अवैध अस्पतालों के बंद होने के बाद गरीबों की लाशों का जिम्मेदार कौन?”
धरना स्थल पर पढ़े गए शेर जैसे तीर की तरह दिल को भेदते हैं:
“ज़िंदगी माँग रही थी एक सांस का सहारा,
हुकूमत ने कहा – इंतज़ार करो, इंतज़ार हमारा।”
भ्रष्टाचार की चादर में लिपटी मौतें
स्वास्थ्य विभाग की फाइलों में सोनभद्र “सुधार” की कहानियों से भरा पड़ा है। परंतु ज़मीनी हकीकत यह है कि न दवाएं उपलब्ध हैं, न डॉक्टर समय पर मिलते हैं, और न ही जीवनरक्षक उपकरण। किसी बच्चे को इमरजेंसी में ICU की ज़रूरत हो तो परिवार को वाराणसी या प्रयागराज भागना पड़ता है। और यह सफर कई जिंदगियां निगल जाता है। यही वजह है कि लोग पूछने लगे हैं — “क्या किस्मत खराब थी या हुक्मरान बेईमान?”
यह भ्रष्टाचार ही है जो सरकारी योजनाओं की घोषणा को कागजों तक सीमित कर देता है। पैसा बहता है, पर दवा की शीशी तक मरीज़ तक नहीं पहुँचती।
करुणा से भरी हकीकत
धरने में शामिल महिलाओं की सिसकियां सबकुछ बयान कर गईं। उन्होंने कहा—“प्रसव पीड़ा से तड़पती बहनें अस्पताल के बाहर दम तोड़ देती हैं। एम्बुलेंस समय पर नहीं आती, डॉक्टर छुट्टी पर होते हैं और गरीब परिवार लाचार रह जाता है।” यह बयान महज़ एक शिकायत नहीं, बल्कि उस करुणा का आईना है जिसे शब्दों में समेटना मुश्किल है।
चार राज्यों का भरोसा, पर सांसें अधूरी
सोनभद्र की भौगोलिक स्थिति इसे और महत्वपूर्ण बनाती है। यहां केवल ज़िले के नहीं, बल्कि बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश से भी मरीज इलाज के लिए आते हैं। पर उन्हें क्या मिलता है? टूटी हुई चारपाई, खाली अलमारी और “रेफर” करने की चिट्ठी। यह हालात इंसानियत को ठेस पहुंचाते हैं। सवाल यह है कि जब लाखों रुपये विकास योजनाओं में खर्च दिखाए जाते हैं, तो फिर इंसान की सबसे बड़ी पूंजी- उसकी जान- इतनी सस्ती क्यों है?
जिम्मेदारी किसकी?
सोनभद्र की स्थिति केवल स्वास्थ्य मंत्री की चुप्पी का नतीजा नहीं है, यह पूरे सिस्टम की विफलता है। लेकिन लोकतंत्र में ज़िम्मेदारी तय करना जरूरी है। यदि सरकार यह मानती है कि विकास गांव-गांव पहुंचा है, तो सोनभद्र की अस्पतालों की हालत उसकी परिभाषा को झुठलाती है। धरने में पढ़ा गया यह शेर हकीकत का आईना है:
“यहां इलाज नहीं, सौदेबाज़ी मिलती है,
ग़रीब की सांस भी यहां नीलामी में बिकती है।”
संपादकीय दृष्टिकोण
सरकार को समझना होगा कि स्वास्थ्य कोई “सुविधा” नहीं, बल्कि नागरिकों का मौलिक अधिकार है। सोनभद्र की इस बदहाली को “दुर्घटना” कहकर टाला नहीं जा सकता। अगर यहां के अस्पताल ठीक नहीं हुए, डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं हुई और मेडिकल कॉलेज पूरी तरह क्रियाशील नहीं बना, तो यह सिर्फ़ प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि “मानवाधिकार का उल्लंघन” कहलाएगा।
अंतिम सवाल
कांग्रेस का धरना चाहे राजनीतिक हो, लेकिन इसने जो सवाल उठाए हैं, वे पूरी इंसानियत के सवाल हैं। सोनभद्र के लोग सरकार से दया या खैरात नहीं, बल्कि अपना अधिकार मांग रहे हैं।
“लिख दो ऐ हुक्मरानों,
हमारे ज़िले की तक़दीर,
कफ़न के सफ़ेद कपड़े में,
और कह दो – यही है विकास।”
अब वक्त आ गया है कि सत्ता के गलियारों में बैठी संवेदनहीनता को झकझोरा जाए। सोनभद्र की सांसें किसी रिपोर्ट या प्रेस रिलीज़ की मोहताज नहीं, बल्कि ठोस सुधार और सच्ची नीयत की हकदार हैं।
Author: Pramod Gupta
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